उसूलों पे जहां आंच आए तो टकराना जरूरी है..

हक के लिए हुंकार भरो टिप्पणी : गोपाल वाजपेयी
उसूलों पे जहां आंच आए तो टकराना जरूरी है,
जो जिंदा हैं तो फिर जिंदा नजर आना जरूरी है।


एक शायर की ये पंक्तियां हमेशा प्रासांगिक रहेंगी। रविवार को नानाखेड़ा क्षेत्र के लोग पानी के लिए तो सोमवार को केडी गेट क्षेत्र के लोग घर बचाने के लिए सड़क पर उतरे। दोनों विरोध प्रदर्शन से हक की आवाज बुलंद हुई। लेकिन प्रदर्शन का स्वरूप व पीडि़तों की कम सहभागिता ने कुछ सवाल भी सुलगा दिए हैं। क्या लोगों ने अव्यवस्थाओं में जीना सीख लिया है? क्या अत्याचार-अन्याय से लोगों ने समझौता कर लिया है? क्या हमने खुद को पूरी तरह से नियति के हवाले कर दिया है? अपने हक की आवाज उठाने में लोग डरते क्यों है? क्या संघर्ष किए बगैर अपना हक मिल जाता है? और सबसे बड़ा सवाल-आपका हक दिलाने के लिए सामने वाला लड़ता है तो क्या उसे मझधार में छोड़कर तमाशा देखते रहोगे? मतलब मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त। क्या लोगों में इतनी भी नैतिकता नहीं बची कि सच को सच और गलत को गलत बोलने का साहस कर सकें? ये सवाल कचोट रहे हैं। क्योंकि नानाखेड़ा क्षेत्र की २५ कॉलोनियों के २० हजार से ज्यादा लोग पानी के लिए जूझ रहे हैं। जूझने का सिलसिला १५ साल से चल रहा है। कभी एकजुट होकर आवाज नहीं उठाई। चुनाव के दौरान घर के दरवाजे पर जब कोई प्रत्याशी आया तो समस्या बता दी और मामला खत्म। इन कॉलोनियों के कुछ लोगों ने एक माह पहले संघर्ष समिति का गठन किया। समिति ने अपने हक की आवाज बुलंद करने के लिए पहले नानाखेड़ा में चक्काजाम किया फिर वाहन रैली निकाली। दोनों प्रदर्शन में बामुश्किल दो से ढाई सौ लोग शामिल हुए। इतने लोगों को जुटाने के लिए भी संघर्ष समिति को संघर्ष करना पड़ा। जिस समस्या से २० हजार से ज्यादा लोग जूझ रहे हों, उसके निराकरण के लिए शांतिपूर्वक प्रदर्शन में पीडि़तों की इतनी कम भागीदारी क्या दर्शाती है? इस इलाके में पानी की समस्या को लेकर पत्रिका एक माह से लगातार मुहिम चला रहा है। एक-एक कॉलोनी के लोगों की व्यथा प्रकाशित की। लेकिन इस दौरान पीडि़तों से अपनी व्यथा उगलवाने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ी। कुछ लोग ही बढ़कर आगे आए। ऐसा ही मामला केडी गेट चौड़ीकरण का है। केडी गेट चौड़ीकरण में करीब चार सौ घरों पर जेसीबी चलने वाली है। सभी को नोटिस जारी हो चुके हैं। ढेलाभर मुआवजा या किसी प्रकार की राहत-सुविधा भी नहीं दी जा रही है। इस मुद्दे को लेकर पत्रिका ने गत जून मुहिम चलाई। उस समय नगर निगम ने तोडफ़ोड़ की कार्रवाई टाल दी थी। छह माह बाद नगर निगम ने फिर फन उठा लिया। इस बार के दंश से बचना मुश्किल है। इस क्षेत्र के लोग मानते हैं व जानते हैं कि उनके साथ घोर अन्याय होने वाला है लेकिन कितने लोग हैं जो सामने आए? नोटिस जारी होने के बाद भी लोग हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। इस मामले को लेकर कांग्रेस आवाज बुलंद कर रही है, लेकिन उसके अपने समीकरण हैं। इस मामले को लेकर दो दिन हुए प्रदर्शन व सभा में सौ से कम पीडि़त शामिल हुए। इसलिए लोगों को समझना पड़ेगा कि अगर बगैर मांगे अपने अधिकार नहीं मिलते तो संघर्ष करना पड़ेगा। शांतिपूर्वक अपने हक की लड़ाई के लिए हुंकार भरो। अपने हक की लड़ाई लडऩे का अधिकार हमें हमारे देश का लोकतंत्र देता है। इसमें डर कैसा और काहे का? एक शायर ने खूब कहा है-
जब टूटने लगे हिम्मत तो बस ये याद रखना,
बिना संघर्ष के हासिल तख्तोताज नहीं होते।
ढूंढ़ लेना अंधेरों में मंजिल अपनी क्योंकि
जुगनू कभी रोशनी के मोहताज नहीं होते।।

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